| من لِلْهَوى قَدِ "الْتَزمْ"؟ |
| وهَلْ تُرى "الْتَزمتُ"؟ |
| لا صِدق، لا إحسانْ؛ |
| وكلَّ ما قَدْ قلتُ |
| وكلَّ ما قَد قيلْ: |
| جميعُهُ هُراء |
| أفزَعَنَا صوتُ العَدَمْ |
| حينَ بها اجتمعْتُ! |
| كانَتْ بلا حَنانْ |
| ليْسَ كما وَصفْتُ؛ |
| ونَدَبَ العَويلْ |
| في شِعري الهُراء! |
| * * * |
| قصةُ حُبٍّ.. لِلأَلم.. |
| كانَتْ.. وقد ندمتُ |
| لكنَّني.. الجبان |
| لأنني.. ما خنْتُ..! |
| كالعاشِقِ الذليلْ؛ |
| يعيشُ.. لِلهُراء..! |
| * * * |
| وكنتُ أعشق القَلَمْ |
| وعاشِقاً.. ما زِلتُ! |
| أزخرفُ البيان |
| والشعْرَ.. إن شعَرتُ |
| بالظنِّ، والدَّليل |
| والوَهْمِ، والهُراء |
| * * * |
| يا لَيتني لَمَّا.. ولَمْ |
| يا لَيتني ما كنتُ! |
| وما جَرَ، أو كانْ |
| ضَيَّعْتُهُ.. أوْ صُنْتُ |
| لِلسر والخليلْ |
| يا ليتهُ.. هُرَاء |
| * * * |
| نَعَمْ، نَعَمْ نَعَمْ نعم |
| بذنْبي اعتَرَفتُ! |
| لأنني "إنسانْ" |
| بطَبْعِهِ.. اقْتَرَفْتُ: |
| ودُونما تَعْليلْ.. |
| مخازي الهُراء.! |
| * * * |
| وتلك حسرة الندم |
| هَاجَتْ وقد هَجَعْتُ؛ |
| ودَمْدَمَ البُركانْ |
| مُعَربِداً فَتِهْتُ |
| ولَيْسَ لي دليل |
| في غَبشِ الهراء..! |
| * * * |
| هُراءْ.. نعَمْ.. هُراءْ |
| وكلّ ما كانَ.. هباء |
| لأنني "إنسانْ": |
| طينٌ؛ ودَمْ.. إذا ألَمَّ |
| بِهِ الأَلمْ.. بكى.. ولَمْ يَنمْ؟ |
| وبات كالجثمانْ؛ |
| فؤادهُ.. هَواءْ..! |
| يُصَانع النكْرانْ |
| وينكِرُ العرفانْ! |
| ويدفنُ الأحزانْ |
| في حُلم النسيانْ |
| والشعْرِ والهراء |