| يا عابرَ الآفاقْ |
| مُرَّ على العراقْ |
| وباسمِ قلبي قَبِّلِ ((الفالةَ)) و ((المكوارْ))
(1)
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| والعَبَقَ الطالعَ من بنادقِ الثوارْ |
| في ((الكويتِ)) .. في ((ميسانَ)) .. |
| في ((الكوفةِ)) .. في ((الأنبارْ))
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| وقلْ لهم: |
| لا شيءَ غيرُ النارْ |
| لا شيءَ غيرُ النارْ |
| يُطَهِّرُ البستانَ من رِجْسِ الخنازيرِ |
| ومن شوكِ الخَنا والعارْ |
| وقلْ لهم: |
| يا حاملي بِشارةِ السُنْبلِ للمنجلِ .. |
| والميلادْ |
| للوطنِ المُثْكلِ بالأعيادْ |
| غداً لنا ميعادْ |
| غداً لنا ميعادْ |
| مع الصباحات التي تُطَرِّزُ البلادْ |
| بالخيرِ والأمانِ .. والرشادْ |
| وقل لهم |
| أَطْبَقْتُ أجفاني على وجوهِكم |
| وأَطْبَقَ الفؤادْ |
| خيمةَ أضلاعي على بغدادْ |
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